Thursday, December 9, 2010

बदलते दौर में पत्रकार संगठनों की भूमिका

रासविहारी
बदलते दौर की बदलती मीडिया में पत्रकार संगठनों की भूमिका को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि पत्रकार संगठनों की प्रासंगिकता कम होती जा रही है। बड़ी संख्या पत्रकार भी सवाल उठाते हैं कि पत्रकार संगठन में शामिल होकर क्या फायदा होगा। इसके पीछे उनके तर्क भी होते हैं। तर्क भी कमजोर नहीं दमदार होते हैं। खासतौर पर पिछले एक दशक से जिस तरह से मीडिया संस्थानों में उठापटक चल रही है, उससे कर्मचारियों में भय का वातावरण बन रहा है। तीन साल पहले आर्थिक मंदी के बहाने बड़े-बड़े मीडिया घरानों से जिस तरह से पुराने कर्मचारियों को निकाला और नए रखे गए, उससे भी लगातार भय बढ़ा। वैसे पत्रकारों के संगठन अन्य मजदूर संगठनों की तरह नहीं बनाए गए। इसकी एक वजह राजनीतिक विचारधारा के आधार पर बने मजदूर संगठनों से अलग रहकर अपनी लड़ाई लड़ना था। मीडिया की ज्यादातर लड़ाई बाहरी ताकतों से रही। आपातकाल से लेकर मीडिया जगत लगातार दबाव झेलता रहा है और उसका मुकाबला भी किया है। प्रिंट मीडिया को लेकर पहले भी सवाल खड़े होते रहे हैं। पत्रकारिया की विश्वनीयता को लेकर लंबे अरसे बहस छिड़ी हुई थी। अब राडिया टेप मामले से बड़े-बड़े पत्रकार कटघरे में खड़े हुए हैं। एनयूजे ने इस मसले पर प्रेस कांसिल से जांच कराने की मांग है।
सवाल यह है कि मीडिया के बदलते दौर में हम संगठन को किस तरह चलाएं। हमारी समस्याएं भी समय के साथ बदल रही है। कुछ ऐसी समस्याएं जो पहले थी, वे आज भी हमारे सामने हैं। एनयूजे और उससे जुड़े राज्य संगठन समस्याओं को सुलझाने की समय-समय पर कोशिश करते रहे हैं। एनयूजे की पहचान दूसरे पत्रकार संगठनों से अलग है। हमारे संगठन की खुछ विशेषताएं हैं। इसी कारण हमारा संगठन अन्य संगठनों के मुकाबले ज्यादा जीवंत है। इसकी एक बड़ी वजह हमारा लोकतांत्रिक ढांचा। एनयूजे में हर दो साल बाद पदाधिकारियों का चुनाव होता है। अध्यक्ष और महासचिव हर बार बदले जाते हैं। बाकी पदाधिकारी भी समय-समय पर बदलते रहते हैं। एनयूजे का नेतृत्व सामूहिक है। हम सब मिलजुल फैसले करते हैं। राज्यों के संगठन भी इसी तर्ज पर अपना काम कर रहे हैं।
बदलते समय के साथ हमें भी बदलने की जरूरत है। अब चुनौतियां पहले से ज्यादा हैं और नए रूप में हैं। पत्रकारों पर पहले भी आरोप लगते रहे हैं। कई बार तो हम एक-दूसरे पर भी आरोप लगाते हैं। दरअसल पत्रकारिता का काम व्यकि्तगत प्रदर्शन का भी है। इस कारण पत्रकारिता में अन्य व्यवसाय के मुकाबले ज्यादा प्रतिस्पर्धा है। हर कोई अपने को दूसरे से बेहतर साबित करना चाहता है। मीडिया प्रतिष्ठानों की आपसी होड़ के साथ व्यक्तिगत होड़ भी है। व्यक्तिगत होड़ मीडिया प्रतिष्ठानों के भीतर भी है और बाहर भी। टीवी चैनल में टीआरपी के लिए होड़ है तो अखबारों में प्रसार संख्या को लेकर है। आज के दौर में यह लड़ाई ज्यादा तेज हुई है। इस लड़ाई को जीतने के लिए मैनेजमेंट में फेरबदल होता है तो संपादकीय विभाग में बदलाव होने लगता है। इसके चलते पत्रकारों के सामने चुनौतियां बढ़ रही हैं। मीडिया के विस्तार के साथ ही अवसर बढ़े हैं। बड़ी संख्या में नए-नए लोग मीडिया में आ रहे हैं। नए पत्रकार बनाने के लिए बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों में संस्थान खुल रहे हैं। बीस साल पहले पत्रकारिता को कोई कैरियर नहीं मानता था, पर अब पत्रकारिता अन्य व्यवसाय की तरह एक कैरियर बनाने का माध्यम है। मीडिया जगत के विस्तार के साथ ही समस्याएं बढ़ रही हैं। उनका समाधान न होने के कारण बैचेनी बढ़ रही है। विस्तार के साथ ही एकजुटता कम होती है।
ऐसे में एनयूजे की भूमिका बढ़ रही है। हमें इसके लिए व्यवहारिक तरीके से सोचना होगा। किस तरह से हम संगठन की गतिविधियां बढ़ाएं। यह मेरी व्यकि्तगत सोच हो सकती है कि हर मुद्दे पर आकर लड़ाई सड़क पर नहीं लड़ी जा सकती है। हालांकि एनयूजे का इतिहास हमेशा पत्रकारिता की साख को बरकरार रखने की लड़ाई रहा है। आपातकाल के दौर में एनयूजे के सदस्य जेल में रहे। कुछ सदस्यों की नौकरी भी गई। आपातकाल का दौर वैसे भी पत्रकारों और पत्रकारिता पर हमले का बड़ा उदाहरण है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब एनयूजे ने पत्रकारिता और पत्रकारों पर हमले के खिलाफ लड़ाई लड़ी। हमें अपनी इस साख को बरकरार रखना है पर कैसे? जब जरूरत पड़ेगी तो हम सड़क पर भी लड़ाई लड़ेंगे। मेरा मानना है कि पत्रकारिता पर संकट को लेकर हम समय-समय पर अलग-अलग विषयों पर छोटी-छोटी गोषि्ठयों में विचार विमर्श करें। इस तरह की एक संगोष्ठी का आयोजन दिल्ली जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ने अयोध्या विवाद को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के आने वाले फैसले को लेकर किया था। इससे अयोध्या विवाद पर आने वाले फैसले की कवरेज करने को लेकर एक राय बनी। मीडिया में डीजेए की पहल को लेकर तारीफ भी हुई। इस तरह की गोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकारों को बुलाकर उनके विचार सुने जाएं। गोष्ठी में शामिल होने वाले पत्रकार भी अपने विचार रखें। इससे सभी का राय सामने आएगी। नए पत्रकारों के साथ ही वरिष्ठ पत्रकारों की राय सामने आने से विषयों पर सि्थति साफ होगी। खासतौर पर मीडिया पर लगने वाले आरोपों को लेकर हम विचार विर्मश करें। कई बार पत्रकारों पर जानबूझकर भी आरोप लगाए जाते हैं।
हमारी शुरू से ही कोशिश रही है कि पत्रकारों के कल्याण लिए विभिन्न योजनाएं चलाई जाएं। खासतौर पर पत्रकारों के लिए स्वास्थ्य योजना शुरू की जाए। कुछ राज्यों में पत्रकारों के लिए बीमा योजना शुरु की गई है। दिल्ली में पत्रकारों के लिए दिल्ली सरकार से स्वास्थ्य योजना शुरु कराई गई थी। हम चाहते हैं कि दिल्ली के हर पत्रकार को इलाज कराने की सुविधा मिले। इसके लिए दिल्ली सरकार से मिलकर बात करेंगे और एक पूरी योजना सौंपेंगे। कम से कम ऐसी सुविधा कम वेतन वाले पत्रकारों को जरूर मिले। केन्द्र सरकार से भी इस मसले पर मांग की जाएगी। केन्द्र सरकार के अस्पतालों में पत्रकारों के लिए अलग कुछ व्यवस्था करने पर मांग की जाएगी। हर राज्य में इस तरह की सुविधा पत्रकारों को मिले तो अच्छा रहेगा। हमने पहले भी सुझाव दिया था कि पत्रकारों के लिए राज्य सरकारों के साथ मिलकर स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की जाए। राज्यों में मान्यता प्राप्त पत्रकारों को तो स्वास्थय सुविधाओं का लाभ मिलता है पर बाकी पत्रकारों को यह सुविधाएं नहीं मिलती है। मीडिया के बढ़ते दायरे के साथ ही दिल्ली, राज्यों की राजधानी, प्रमुख शहरों, मंडलों, जिलों से लेकर तहसील स्तर ऐसी सुविधाएं दिलाने के लिए एनयूजे मांग उठाएगी। स्वास्थ्य बीमा योजना में कुछ हिस्सा सरकार तो बाकी पत्रकार सदस्य देंगे तो, योजना सफल हो सकती है। इससे पत्रकार भी जुडेंगे। पत्रकारों के लिए दुर्घटना बीमा योजना भी चलाने की जरूरत है। दुर्घटना में किसी पत्रकार की मौत के बाद उनके परिवारीजनों के सामने भयानक संकट पैदा हो जाता है। कम से कम दुर्घटना बीमा योजना से मिलने वाली राशि से संकटग्रस्त परिवार को कुछ तो राहत मिलेगी। एनयूजे के जर्नलिस्ट्स वेलफेयर फाउंडेशन के जरिए इस तरह की योजना शुरु की गई है। इसका विस्तार करने की जरूरत है। फाउंडेशन की तरफ से कुछ पत्रकारों को आर्थिक सहायता भी दी गई है। इस तरह की योजनाओं के जरिए पत्रकार भी हमारे संगठन जुड़ेंगे। पत्रकारों के लिए सुविधाएं दिलाने के लिए हम पहले से केन्द्र और राज्य सरकारों से बात करते रहें। कई बातचीत के दौरान पता चलता है कि कुछ पत्रकार ही ऐसी योजनाओं को पलीता लगवाते रहे हैं। दिल्ली में योजनाओं को कुछ पत्रकारों ने अपने स्वार्थ के लिए पलीता लगवाया। इसके बावजूद दिल्ली सरकार नई योजना पत्रकारों के लिए बना रही है। संगठन में सबसे ज्यादा जरूरत नए पत्रकारों को जोड़ने की है। एनयूजे, एनयूजे स्कूल मॉस कम्युनिकेशन और संबद्ध संगठन पत्रकारों को विभिन्न मुद्दो पर पूरी जानकारी देने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन करते रहे हैं। हर विषय पर कार्यशालाओं का आयोजन किया गया है। एनयूजे की योजना है कि संसद और विधानसभा की कार्यवाही पर जल्दी ही पत्रकारों के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जाएगा। मौजूदा दौर में नए-नए मुद्दे उठ रहे हैं। कई ऐसे कठिन विषय होते हैं, जिनकी जानकारी आम पत्रकारों को नहीं होती है। हाल ही में विकीलीक्स के खुलासे के बाद आम पत्रकारों में जिज्ञासा जगी है कि यह सब क्या है। कई नए शब्द सामने आए हैं। ऐसे में जानकार पत्रकारों के जरिए हम नए विषय पर जानकारी दे सकते हैं। इससे पत्रकारों की जानकारी बढ़ेगी। पत्रकारों का झुकाव भी एनयूजे की तरफ होगा। इसके लिए जरूरी नहीं है कि बड़ी संगोषि्ठयों का आयोजन किया जाए। हम छोटे-छोटे समूहों में इस तरह की कार्यशालाओं का आयोजन कर सकते हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि कार्यशालाओं के आयोजन के लिए पूरे तामझाम जुटाए जाएं। मीडिया स्कूलों के साथ भी इस तरह की कार्यशालाओं का आयोजन करने की हम योजना बना रहे हैं।
आप यह तो देख रहे हैं कि मीडिया के बढ़ते दायरे के साथ मीडिया की भूमिका पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं। इसके साथ ही घटनाओं की कवरेज समय मीडियाकर्मियों के साथ मारपीट और झड़प की घटनाएं बढ़ रही है। कई बार पत्रकारों के साथ मारपीट की घटनाओं का सही तरीके से विरोध भी नहीं हो पाता है। कई बार तो मारपीट की घटनाओं की निंदा भी नहीं करते हैं। ऐसी घटनाओं को टीवीचैनल और अखबार जिक्र भी नहीं करते हैं। एनयूजे और राज्य संगठन इस बारे में विचार करके रणनीति तैयार करेंगे।

3 comments:

  1. नेता जी ! विचार तो आपके पहले की तरह ही यहाँ भी अच्छे हैं. लेकिन श्याम खोसला टाइप के लोगों ने एनयूंजे की साख को जो बट्टा लगाया है, उसे बहाल करने के लिए आपको और आपकी टीम को बहुत मेहनत करने की जरूरत है. खैर आपको हमारी शुभ कामनाएं...

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  2. sir your comment is very good. But do something for welfare or journilist and journilism.Best of luck.

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  3. पत्रकार संगठनों पर आवाज उठने के मसले पर पहले दो लाइन कहूंगा
    नदी किनारे धुआं उठत है, मैं सोचूं कुछ होय
    जिसके कारण मैं जली, वही न जलता होय
    इस सबके बावजूद यही कहूंगा कि
    वह पथ क्या पथिक कुशलता क्या, यदि पथ में बिखरे शूल न हों
    नाविक की धैर्य परीक्षा क्या यदि धाराएं प्रतिकूल न हों
    संगठनों पर सवालों के उठने के मसले पर विचार करते हुए हमें पत्रकार हित में कुछ करना चाहिए। डेस्क जर्नलिस्ट हूं, लिखता भी हूं चाहूंगा कि उनके लिए भी कुछ हो।
    धन्यवाद

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